हमारा वैरी (शत्रु) हमारे अंत:करण में ही स्थित !!! अर्जुन ने पूछा, अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ हे वृष्णि कुल में उत्पन्न हुए कृष्ण ! किस प्रधान कारण से प्रयुक्त किया हुआ यह पुरुष स्वयं न चाहता हुआ भी राजा से प्रयुक्त किये हुए सेवक की तरह बलपूर्वक लगाया हुआ सा पाप-कर्म का आचरण किया करता है ? (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ३, श्लोक - ३६) जिसको तू पूछता है, सर्व अनर्थों के कारण रूप उस वैरी के विषय में सुन - इस उद्देश्य से भगवान् बोले - काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥ यह काम (कामना) जो सब लोगों का शत्रु है, जिसके निमित्त से जीवों को सब अनर्थों की प्राप्ति होती है, वही यह काम किसी कारण से बाधित होने पर क्रोध के रूप में बदल जाता है, इसलिए क्रोध भी यही है। यह काम रजोगुण से उत्पन्न हुआ है अथवा यों समझो की रजोगुण का उत्पादक है; क्योंकि उत्पन्न हुआ काम ही रजोगुण को प्रकट करके पुरुष को कर्म में लगाया करता है। तथा रजोगुण के कार्य - सेवा आदि में लगे हुए दुःखित मनुष्यों का ही यह प्रलाप सुना जाता है की "तृष्णा ही हमसे अमुक काम करवाती है" इत्यादि। यह काम बहुत खानेवाला है। इसलिए महापापी भी है, क्योंकि काम से प्रेरित हुआ जीव पाप किया करता है। इसलिए इस काम को ही तू संसार में वैरी जान। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ३, श्लोक - ३७) "काम एष क्रोध एष" का अर्थ है दोनों मूलतः एक हैं। जब काम की उत्पत्ति होती है तो उसके पूरा न होने पर क्रोध आता है। क्रोध तो इसीलिए आता है कि अपनी इच्छा पूरी नहीं हुई है। इसलिए क्रोध में भी काम आता है। क्रोधित व्यक्ति मारने को भी तत्पर हो जाता है। यहाँ मारने की कामना हो गई और यदि किसी को पाने की इच्छा हो तो बाधक को मार डालने की प्रवृति होगी और क्रोध होगा। इसलिए जो काम है, वही क्रोध है और जो क्रोध है वही काम है। इन दोनों की उत्पत्ति कैसे हुई ?? जब आत्मा का रजोगुण से सम्बन्ध हुआ और रजोगुण में 'मैं' - प्रभावहीन हुआ और 'मेरा' यानी अहंकार प्रभावशाली हुआ। रजोगुण प्रवृत करने वाला है। भगवान् कहते हैं - उत्पन्न हुए रजोगुण के ये चिन्ह हैं - लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा । रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ ! लोभ - परद्रव्य को प्राप्त करने की इच्छा, प्रवृति - सामान्य भाव से सांसारिक चेष्टा और कर्मों का आरम्भ तथा अशांति - उपरामता (comfort) का अभाव, हर्ष और रागादि के लिए प्रवृत होना तथा लालसा अर्थात सामान्य भाव से समस्त वस्तुओं में तृष्णा - ये सब चिन्ह रजोगुण के बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - १४, श्लोक - १२) भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं - काम बहुत खानेवाला महापापी है और इसी से प्रेरित होकर मनुष्य पाप किया करता है। यही हम सबका वैरी है अर्थात हमारा वैरी (शत्रु) कहीं बाहर नहीं है वह तो हमारे अन्तःकरण में ही रहता है। शत्रु बाहर नहीं, हमारे घर में भी नहीं बल्कि वह तो नौ द्वार वाले पुर में ही बैठा है ! जय श्री कृष्ण !!
Monday, 21 March 2016
शत्रु
हमारा वैरी (शत्रु) हमारे अंत:करण में ही स्थित !!! अर्जुन ने पूछा, अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ हे वृष्णि कुल में उत्पन्न हुए कृष्ण ! किस प्रधान कारण से प्रयुक्त किया हुआ यह पुरुष स्वयं न चाहता हुआ भी राजा से प्रयुक्त किये हुए सेवक की तरह बलपूर्वक लगाया हुआ सा पाप-कर्म का आचरण किया करता है ? (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ३, श्लोक - ३६) जिसको तू पूछता है, सर्व अनर्थों के कारण रूप उस वैरी के विषय में सुन - इस उद्देश्य से भगवान् बोले - काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥ यह काम (कामना) जो सब लोगों का शत्रु है, जिसके निमित्त से जीवों को सब अनर्थों की प्राप्ति होती है, वही यह काम किसी कारण से बाधित होने पर क्रोध के रूप में बदल जाता है, इसलिए क्रोध भी यही है। यह काम रजोगुण से उत्पन्न हुआ है अथवा यों समझो की रजोगुण का उत्पादक है; क्योंकि उत्पन्न हुआ काम ही रजोगुण को प्रकट करके पुरुष को कर्म में लगाया करता है। तथा रजोगुण के कार्य - सेवा आदि में लगे हुए दुःखित मनुष्यों का ही यह प्रलाप सुना जाता है की "तृष्णा ही हमसे अमुक काम करवाती है" इत्यादि। यह काम बहुत खानेवाला है। इसलिए महापापी भी है, क्योंकि काम से प्रेरित हुआ जीव पाप किया करता है। इसलिए इस काम को ही तू संसार में वैरी जान। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ३, श्लोक - ३७) "काम एष क्रोध एष" का अर्थ है दोनों मूलतः एक हैं। जब काम की उत्पत्ति होती है तो उसके पूरा न होने पर क्रोध आता है। क्रोध तो इसीलिए आता है कि अपनी इच्छा पूरी नहीं हुई है। इसलिए क्रोध में भी काम आता है। क्रोधित व्यक्ति मारने को भी तत्पर हो जाता है। यहाँ मारने की कामना हो गई और यदि किसी को पाने की इच्छा हो तो बाधक को मार डालने की प्रवृति होगी और क्रोध होगा। इसलिए जो काम है, वही क्रोध है और जो क्रोध है वही काम है। इन दोनों की उत्पत्ति कैसे हुई ?? जब आत्मा का रजोगुण से सम्बन्ध हुआ और रजोगुण में 'मैं' - प्रभावहीन हुआ और 'मेरा' यानी अहंकार प्रभावशाली हुआ। रजोगुण प्रवृत करने वाला है। भगवान् कहते हैं - उत्पन्न हुए रजोगुण के ये चिन्ह हैं - लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा । रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ ! लोभ - परद्रव्य को प्राप्त करने की इच्छा, प्रवृति - सामान्य भाव से सांसारिक चेष्टा और कर्मों का आरम्भ तथा अशांति - उपरामता (comfort) का अभाव, हर्ष और रागादि के लिए प्रवृत होना तथा लालसा अर्थात सामान्य भाव से समस्त वस्तुओं में तृष्णा - ये सब चिन्ह रजोगुण के बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - १४, श्लोक - १२) भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं - काम बहुत खानेवाला महापापी है और इसी से प्रेरित होकर मनुष्य पाप किया करता है। यही हम सबका वैरी है अर्थात हमारा वैरी (शत्रु) कहीं बाहर नहीं है वह तो हमारे अन्तःकरण में ही रहता है। शत्रु बाहर नहीं, हमारे घर में भी नहीं बल्कि वह तो नौ द्वार वाले पुर में ही बैठा है ! जय श्री कृष्ण !!